Saturday, July 10, 2010

बारिश की फुहार

बारिश की फुहार से मिटटी से उठने वाली सौंधी-सौंधी महक से मन प्रफुलित हो उठा। जब फुहार थोड़ा गहराकर भारी हो गई तो मन किसी पगले मयूर की तरफ नाचने को व्याकुल हो गया। हो भी क्यों न! तपती गर्मी में जब तन के साथ मन भी झुलस रहा हो ऐसे में बारिश की बूंदे न केवल धरती की प्यास बुझाकर, प्रकृति को नवयौवन प्रदान करती है अपितु सूर्य प्रदत वेदना से अंर्तमन को भी पुल्लकित कर देती है। कृत्रिम होते जड़वत जीवन में शायद यही संजीवनी है, जो सुप्त होती इच्छाओं में पुन:संचार कर देती है। यह अहसास सूखी धरती पर मेघ बरसते देख, किसान के अधरों पर उत्पन्न होने वाली मुस्कान से सहज ही हो सकता है जो बारिश की बूंदों को केवल पानी न समझ उनमें अपने सपनों को पूरा की आस को देखता है। वस्तृत: इन पानी की बूदों में संपूर्ण प्राणी जगत ही किसी न किसी प्रकार अपने जीवन का संबल प्राप्त करता है।कभी-कभी लगता है बारिश की इन बूदों में ही जीवन का संपूर्ण सार छुपा है, जो जीवन के अंत और प्रारंभ को भी व्याख्यायित कर देता है। वर्षाकाल, प्रिय-प्रियतमा की प्रणय बेला कों संचारित कर सकती है तो अपने अतिरेक में जीवन को ध्वंस भी। महान कवि कालिदास जी ने मेधदूतम ऐसे ही यक्ष का वर्णन किया जो प्रणय के इस काल के व्यर्थ जाने पर विरह की ज्वाला में दग्ध हो रहा है तो अतिरेक की स्थिति कालजयी रचना कामायनी का आधार बन गई-एक पुरुष, भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह । नीचे जल था Åपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन । साभार: जयशंकर प्रसाद
वैज्ञानिक भी मानते हैं कि पृथ्वी पर सबसे पहले जीवन का अस्तित्व पानी में उभरा और धार्मिक गzंथ इसका अंत पानी में मानते हैं। शायद यही जीवन की सबसे जटिल या सबसे सहज परिभाषा है। वर्षा जब तक अपने सहज रूप में रहे तो यह जीवनदायिनी रहती है और जब यह विकराल रूप धारण कर ले तो विनाश की नवीन लीला रच देती है। तभी यह किसी यक्ष के लिए कुछ होती है तो किसी मनु के लिए कुछ। आइये मिलकर स्वागत करें इस ऋतु का जो सृष्टि को ताजगी से भरकर एक नवीनता उत्पन्न करे, साथ ही यह प्रार्थना भी करें की यह अपने अतिरेक में कोई अनर्थ न करे।

द्वीपांतर परिवार

Thursday, January 21, 2010

गणतंत्र का मूल


हम गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारियां कर रहे हैं। राजधानी का राजपथ विकसित होते देश की झलक विश्व को दिखाने के लिए व्याकुल हो रहा है। क्षण-प्रतिक्षण बीतता समय सुखद भविष्य की कामना के साथ अतीत की स्मृतियों को भी इस अवसर पर बारंबार कुरेद रहा है। इस घड़ी में आत्मावलोकन के साथ सिहांवलोकन भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि बिना भूतकाल को याद किए इस बात का निर्णय करना कठिन है कि हम कहां है और बिना इस जानकारी के भविष्य के लिए सपनों की इबारत लिखना व्यर्थ है। पीछे देखें तो इस बात का गौरव संतोष पैदा करता है कि हम गुलामी की बेड़ियों को उतार स्वराज्य प्राप्त कर नव-निर्माण का इतिहास प्रतिदिन रच रहे हैं। यह मधुर अहसास, हमारे विचारों और कृत्यों को मजबूती प्रदान करता है। हम विश्व के अगzणी देशों की फेहरिस्त में सम्मिलित हो रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय पटल पर हमारी विशिष्ट पहचान बन चुकी है, जिसे परिष्कृत करने का कार्य निरंतर चल रहा है। इस अतीत और वर्तमान की बुनियाद पर हम स्वर्णिम भविष्य की संकल्पना कर सकते हैं। परंतु इन आंकड़ीय तथ्यों के मध्य जब हम आत्मावलोकन करते हैं तो हमें वो चेहरे भी दिखते हैं जो दो वक्त की रोटी के लिए भी मोहताज हैं, जिन्होंने कभी स्कूल नहीं देखा, जो इलाज के अभाव में सिसक-सिसक कर जी रहे हैं। निश्चय ही देश ने अप्रतिम प्रगति की है, परंतु उस प्रगति का लाभ उस आम आदमी तक नहीं पहुंचा जो गांवों में रहता है। शहरी चकाचौंध को छोड़ दिया जाए तो आज भी देश के कई भागों से आम जनता के भोजन के रूप निकृष्टम पदार्थों का सेवन करने की बाते सुर्खियां बनकर हमारे सामने आती हैं। महंगाई इस वर्ष अपने चरम पर हैं। आम आदमी के लिए दो वक्त की रोटी भी जी का जंजाल बनी हुई है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी मानते हैं कि देश की 28 प्रतिशत आबादी अब भी गरीबी में जी रही है। 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। 50 प्रतिशत छात्रा सेंकेडरी शिक्षा से पहले ही स्कूल त्याग देते हैं। 60 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से गzस्त हैं और जब देश में प्राय: सरकारी आंकड़ों को संशय की दृष्टि से ही देखा जाता हो तो ऐसे में स्थिति को स्वयं ही समझा जा सकता है। नि:संदेह यह स्थिति अत्यंत ही चिंताजनक है। भले ही यह कह लिया जाए कि विकास की अपनी गति होती है, रातोरात चमत्कार नहीं हो सकता। परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के 6 दशकों का समय कम भी नहीं होता। इतनी अवधि में एक पूरी पीढ़ी बूढ़ी हो सेवानिवृत हो जाती है। यहां इन बातों को उजागर करने का आशय किसी पूर्वागzह या दुरागzह से प्रेरित होना नहीं है, बल्कि इस कमी को दूर करने की प्राथमिकता पर जोर देना है। महत्वपूर्ण यह है कि जब भी योजनाएं बनाई जाएं तो उसके केंदz में सबसे पहले उस आम देशवासी को रखा जाए तो अभावगzस्त है। साथ ही इन योजनाओं के दिशा-निर्देश इस प्रकार तय किए जाएं ताकि इनके जिन आंकलनों को आधार बनाया गया है वह कहीं पीछे न छूट जाए। गणतंत्र में गण की महत्ता को बढ़ावा मिले न कि तथ्यों के उद~घाटन को। वास्तव में गणतंत्र दिवस का शुभ अवसर पर हम सबको राष्ट्र निर्माण के उन सपनों को याद कराता है जो आजादी प्राप्त करने से पूर्व देखें गए थे। अत: इस अवसर की महिमा को स्मरण रख, संकल्पित होकर सबके लिए खुशहाल भारत का निर्माण करने के हम सब एक जुट हो, यही वास्तविक गणतंत्र का मूल है।

Saturday, January 9, 2010

पंचकर्म से संभव है सोरायसिस का उपचार







प्राय सोरायसिस के रोगी अपने इस रोग को आम दाद-खाज खुजली के रोग से जोड़कर लंबे समय तक इसका उपचार कराने से कतराते रहते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि जब यह रोग काफी पुराना तथा जटिल हो जाता है तब रोगी इसके इलाज के लिए चिंतित होता है। रोग के संदर्भ में विशेष बात यह ध्यान देने योग्य है कि रोग जितना पुराना हो जाता है उसके उपचार में उतना ही समय लगता है। -डा. देवाशीष पांडा

यह लेख डा. देवाशीष पांडा से की गई बातचीत पर आधारित है। द्वीपांतर परिवार उनका आभारी है कि उन्होंने अपनी व्यस्त दिनचर्या में से समय निकालकर हमें इस लेख के लिए सहयोग दिया

मिथ्या आहार-विहार के कारण वर्तमान समय में त्वचा संबंधी विकार बढ़ रहे हैं। डा. देवाशीष पांडा के अनुसार सामान्यत त्वचा से संबंधित यह विकार उचित खान-पान तथा औषधियों से ठीक हो जाते हैं, लेकिन कुछ त्वचा रोग ऐसे भी होते हैं जिनकी चिकित्सा जटिल होती है। त्वचा से संबंधित एक ऐसा ही रोग है सोरायसिस। एक अनुमान के मुताबिक सोरायसिस के रोगी संपूर्ण विश्व में ही मिलते हैं। सकल विश्व की कुल जनसंख्या का अनुमानत 1 प्रतिशत हिस्सा सोरायसिस रोग से पीड़ित हैं। इस आधार पर माना जा सकता है कि हमारे देश में भी जनसंख्या का लगभग 1 प्रतिशत भाग इस रोग से जूझ है।

क्या है सोरायसिस
मनुष्य की सामान्य त्वचा पर सोरायसिस रोग पपड़ीदार, रक्तिम;रक्तवर्णितद्ध वह विकार है जो चकतों के रूप में अलग से उभरे होते हैं। यह कुछ-कुछ मछली की उपरी खाल की तरह होते हैं। यह चकते प्राय हाथ-पैर, घुटनों, कोहनी, सिर के बालों के नीचे और पीठ के निचले हिस्सों पर देखने को मिलते हैं। इन चकतों का आकार मुख्यत 2-4 मिमि से लेकर कुछ सेमी तक हो सकता है, जिनमें खुजली की शिकायत भी रोगी को होती है। डाक्टर देवाशीष पांडा के अनुसार आयुर्वेद में इस रोग को एककुष्ठ कहा जाता है। यह रोग सामान्यतया शरीर में हो जाने वाली दाद-खाज से भिन्न प्रकृति का है। जहां दाद-खाज का घरेलू उपचार संभव है वहीं सोरायसिस के रोगी को चिकित्सकीय उपचार की परम आवश्यकता होती है। उपयुक्त उपचार के अभाव में रोगी के प्राणों पर भी संकट उत्पन्न हो सकता है।

रोग होने के कारण




रोग होने के कारणसोरायसिस रोग कभी भी किसी को भी हो सकता है। हालांकि, अभी तक इस रोग के संदर्भ में हुए अनुसंधन से यह स्पष्ट रूप से विदित नहीं हो सका है कि सोरायसिस रोग के उत्पन्न होने का प्रमुख कारण क्या हैं, परंतु प्रत्येक 10 रोगियों में से एक को यह वंशानुगत रूप से मिला होता है। इसलिए इसे जेनेटिक या विरासत में मिला हुआ रोग भी माना जा सकता है। कुछ लोग इसे भूलवश छूत की बिमारी मानते हैं, लेकिन यह रोग छूने से नहीं फैलता है।

सोरायसिस के प्रमुख लक्षण



सोरायसिस रोग से पीढ़ित व्यक्ति की त्वचा सूजी हुई, पपड़ीदार, रुखी-सूखी चकतों में विभक्त दिखाई देती है। यह चकते रक्तिमवर्ण लिए होते हैं जिनमें खुजली होती रहती है। यह रोग बड़ी तेजी के साथ शरीर पर फैलता है। सोरायसिस रोग किसी को, कभी हो सकता है परंतु युवास्था में इस रोग के होने की संभावना अधिक होती है । डाक्टर देवाशीष पांडा के अनुसार सोरायसिस रोग की प्रकृति रितुओं से भी प्रभावित होती है। गर्मियों की अपेक्षा सर्दियों में सोरायसिस बढ़ जाता है

सोरायसिस की चिकित्सा



सोरायसिस का उपचार यदि न कराया जाए तो यह रोग आसाध्य तक हो जाता है। डाक्टर देवाशीष पांडा का कहना है कि कि आर्युवेद में पंचकर्मा पद्वति से सोरायसिस का सफल इलाज संभव है। जिसके अंतर्गत औषिधि युक्त घृत-घी से वमन तथा तकधारा करायी जाती है। इस पद्वति के तहत उपचार के लिए मरीज को 8-10 दिन के लिए अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है तत्पश्चात मरीज घर पर ही इस रोग की दवा लेता रहता है।

Thursday, January 7, 2010

रियलिटी शो और बच्चे


द्वीपांतर परिवार
पिछले कुछ एक वर्षों से छोटे पर्दें पर रियलिटी शो तथा प्रतिस्पर्धात्मक कार्यक्रमों की बाढ़-सी आ रखी है। इन कार्यक्रमों से जिस प्रकार टीवी चैनलों की टीआरपी बढ़ती है, उसे देखते हुए हर एक टीवी चैनल इस प्रकार के ‘डेली सोप’ कार्यक्रमों को अपने एयर टाइम में जगह देने के लिए तैयार खड़ा है। इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि इन कार्यक्रमों में विजेता को एक भारी भरकम रकम तथा प्रसिद्धि इनाम के रूप में मिलती है, जिसके कारण शो में भाग लेने वाला हर प्रतिभागी खुद को सिकंदर साबित करने में जी-जान से जुट जाता है। और खुद को सिकंदर साबित करने की यह मनोदशा उन्हें कई बार अवसाद के चक्रव्यूह में भी उलझा देती है। उधर कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ाने के लिए भी तमाम तरह के हथकंडे चैनलों द्वारा अपनाए जाते हैं। शो के जजों के आपसी मनमुटाव से लेकर प्रतिभागियों की आपसी नोक-झोक को भी ‘सनसेशनल’ सनसनी बनाकर बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है। चूंकि यह सारा मामला टीआरपी से अर्थात् गलाकाट होड़ में अन्य चैनलों से आगे निकलने का होता है इसलिए हर वो तरीका अपनाया जाता है, जिससे दर्शक कार्यक्रम देखने के लिए प्रोत्साहित हांे। इसी बानगी के तहत छोटे-छोटे बच्चों को भी रातोरात स्टार और लखपति बनने के ख्याब दिखाए जाते हैं। बड़ों की तर्ज पर जब यह सुकुमार व्यावसायिकता के पुट से परिपूर्ण कार्यक्रमों में भाग लेते हैं तो वहां उनके साथ व्यवहार भी किसी प्रोफेशनल की तरह ही किया जाता है। हालांकि इसमें केवल टी-वी- चैनल वालों को ही दोष देना गलत होगा, क्योंकि संभवतघ् अभिभावकों का एक बड़ा तबका भी जाने-अनजाने इस ग्लैमर से प्रभावित होकर अपनी इच्छाओं का बोझ बच्चों पर डाल देता है। इस सबके बीच में अबोध आयु के बच्चे पर कार्यक्रम में असफल होने पर क्या बीतती होगी, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल नहीं है। कुछ समय पूर्व दक्षिण कोलकाता की शिंजिनी सेन को एक रियलिटी शो में जजों के विचारों से इस कदर मानसिक आघात लगा कि वह लकवे का शिकार हो गई।ऐसा होगा संभवत किसी ने सोचा भी न होगा। यहां पर हमारा उदेश्य किसी पर दोषारोपण करने का या किसी की भावनाओं को आहत का कदापि भी नहीं है। शो के जजों को यदि गुरु मान लिया जाए तो उनका कार्य ही प्रतिभागियों ‘शिष्यों’ की योग्यता का आंकलन कर उनकी कमियों को उनके सामने लाना है। ऐसे में बहुत हद तक संभव है कि वह कटुवचन भी बोल दें। उधर प्रत्येक माता-पिता की इच्छा होती है कि उनकी संतान जीवन में सफलता और यश प्राप्त करें, इस लिए वो अपने बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं, और निसंदेह करना भी चाहिए। लेकिन इन सब के बीच जो एक अहम् सवाल है कि प्रतियोगी बच्चों की भावनाओं को भी सभी समझना आवश्यक है, उसे दर किनार ही कर दिया जाता है, जिसका परिणाम शिंजिनी के रूप में हमारे सामने आता है। यहां आवश्यक यह है कि बच्चा किसी प्रतियोगिता, केवल टीवी शो ही नहीं बल्कि पढ़ाई इत्यादि के क्षेत्र में भी असफल हो जाता है, तो उसका मनोबल बढ़ाने का प्रयास सभी के द्वारा करना चाहिए। रियालिटी शो में शिल्पा शेट्टी जैसे स्थापित कलाकार भावनात्मक रूप से आहत हो जाते हैं तो एक बच्चे की स्थिति सहज समझी जा सकती है। इसलिए जरूरी है कि टीवी चैनलों के जज एवं बच्चों के माता-पिता भी इस बात का ध्यान रखें कि वो एक बच्चे हैं कोई प्रोफेशल्नस नहीं।

Friday, January 1, 2010

युवाओं में कम होती रिश्तों की अहमियत

लेखक-रेनू त्यागी कोटियाल

भाग दौड़ भरी जिंदगी और पीछे छूटते संस्कार लगभग यही हाल है आज की युवा होती पीढ़ी का। आज के युवा रिश्तों को निभाना तो दूर सीरियस लेना भी जरूरी नहीं समझते। बड़े-बूढ़े, मां-बाप, भाई-बहन, चाचा, मामा ये सब रिश्ते उन्हें अब शब्द मात्र बेमानी से लगने लगे हंै। सिर्फ अपने में ही मस्त रहने वाली आज की ये पीढ़ी अपने बुजुर्गांे से पीछा छुड़ाती नजर आ रही है। एकाकी जीवन को पूर्ण मानने की भावना के कारण जीवन के महत्पूर्ण रिश्ते जो कि उनके जन्म के साथ ही उनसे जुड़े होते हैं वो उनके लिए बोझ बन रहे हैं। उनके अपने मां-बाप, दादा-दादी उनके लिए बोझ बनने लगे हैं। इनके पर आधुनिक सभ्यता इतनी हावी हो चुकी है कि इन्हें ये भी ख्याल नहीं कि जिन रिश्तों की वो बलि देकर आगे बढ़ रहे हैं बुरे वक्त में उन्हें इन्हीं रिश्तों की जरूरत होगी। आखिर क्यों बदल रहा है युवाओं का नजरिया। आइये डालते हैं एक नजर कि कौन सी बात है जिससे बदल गये है रिश्तों के मायनें।

नैतिकता का अभाव- वर्तमान शिक्षा प्रणाली और पहले की शिक्षा प्रणाली में यही फर्क है कि जहां पहले की शिक्षा प्रणाली मंे नैतिकता का असर था वहीं आज की शिक्षा पद्धति में नैतिकता कही दूर-दूर तक भी नजर नहीं आती।परस्पर प्रेम, सदभाव और समर्पण की भावना का विकास करने वाली बातें अब नीतिशास्त्र के वो अध्याय बन गए हैं जिनका पठन पाठन तो युवा करते हैं परंतु उनका अनुसरण करना उनको नहीं आता। आज की शिक्षा पूरी तरह से व्यावसायिक मूल्यों को ध्यान रखकर दी जा रही है जिसका असर सीधा हमारे नैतिक मूल्यों पर पड़ रहा है। इसी से आज युवाओं के दिल में मानवीय संवेदना खत्म होती जा रही है।

पाश्चात्य जगत का प्रभाव- आज का युवा वर्ग ये सोचता है कि अगर वो पाश्चात्य सभ्यता को अपना लेगा तभी वो जीवन में आगे बढ़ सकेगा है। इसी वजह से आज वो अपनी संस्कृति अपने आदर्शांे की बलि दे रहे हैं इसका नतीजा ये हो रहा है की धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का यानि न वो पूरी तरह से अपने कल्चर में ढल पर रहे हंै और न ही पश्चिमी सभ्यता में। आज के युवाओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिये की वो जिस कल्चर के लिए पागल हुए जा रहे हैं वहां के लोग आज हमारी सभ्यता को अपना रहे है। अगर हम अपने कल्चर का पालन करे तो जाहिरतौर पर तरक्की हमारे कदमों में होगी।

बदलाव का दुश्परिणाम- समय के साथ संयुक्त परिवार की परंपरा खत्म ही होती जा रही है जहां पहले संयुक्त परिवार में रहना जरूरी माना जाता था इसी प्रकार आज के युवाओं में यह मानसिकता पनपती जा रही है कि अगर आप अलग रहोगे तो जिन्दगी अपने ढ़ग से जी सकते हो ये बात ठीक है कि इसमें आप अपना जीवन अपनी स्टाइल में बीता सकते हो लेकिन जब आप पर बुरा समय आयेगा तो आप उस दिन भीड़ में अकेले ही रह जाओगे इसलिए तो किसी ने कहा है एकता में शक्ति है।
अपनी धुन में रहना- आज के नौजवान अपनी एक दुनियां बना लेते है और उसी में मस्त रहते है। वो चाहते है उनकी दुनियां में कोई दखल न दे और अगर कोई ऐसा करता है तो उन्हें लगता है कि वो उनकी राह का सबसे बडा रोड़ा है और वो उस रिश्ते से सदा के लिए निजाद पा लेना चाहते है। अब आलम यहां तक आ चुका है कि ये वर्ग अपनी जिम्मेवारियों से भी दूर भागने लगा है चाहे वो पारिवारिक जिम्मेदारियां हो या खुद के मां-बाप की।